पानीपत के तृतीय युद्ध के प्रमुख कारण – Panipat Ke Tratiya Yudh Ke Pramukh Karan

पानीपत के तृतीय युद्ध के प्रमुख कारण – Panipat Ke Tratiya Yudh Ke Pramukh Karan

पानीपत के तृतीय युद्ध के प्रमुख कारण (Panipat Ke Tratiya Yudh Ke Pramukh Karan)- बालाजी बाजीराव के पेशवा बनने के पश्चात् भारत में मराठा शक्ति का निरन्तर विकास और विस्तार होता गया। उसके नेतृत्व में मराठों ने भारत के उत्तरी तथा दक्षिणी भागों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करके सुदृढ़ मराठा राज्य की स्थापना की। सन् 1760 में मराठों ने सदाशिवराव भाऊ के नेतृत्व में दिल्ली पर अधिकार कर लिया, तत्पश्चात् उन्होंने लाहौर को भी अपने अधीन कर लिया। उन दिनों अहमदशाह अब्दाली भारत पर निरन्तर आक्रमण कर रहा था । उसने चार बार आक्रमण किया था। मराठों की साम्राज्य विस्तारवादी नीति से दुःखी होकर मुगल सरदारों ने मराठों की शक्ति पर नियन्त्रण लगाने के उद्देश्य से अहमदशाह अब्दाली को मराठों पर आक्रमण करने को आमन्त्रित किया। इस प्रकार पाँचवीं बार अब्दाली ने सन् 1761 में भारत पर आक्रमण किया । इस युद्ध को पानीपत का तृतीय युद्ध कहा जाता है। नीचे हम आपको पानीपत के तृतीय युद्ध के प्रमुख कारण बताने वाले है।

पानीपत के तृतीय युद्ध के प्रमुख कारण - Panipat Ke Tratiya Yudh Ke Pramukh Karan

पानीपत के तृतीय युद्ध के प्रमुख कारण :

(1) दिल्ली दरबार में मराठों का हस्तक्षेप-

दिल्ली के राजसिंहासन और उत्तरी भारत की राजनीति में मराठों का हस्तक्षेप सन् 1752 से प्रारम्भ हुआ था। उस वर्ष पेशवा बालाजी
बाजीराव ने मुगल बादशाह के साथ एक सन्धि की थी जिसके आधार पर मराठों को सम्पूर्ण भारत से चौथ वसूल करने का अधिकार मिल गया और मराठों ने आवश्यकता के समय मुगल बादशाह को सहायता देने का आश्वासन दिया था। इस प्रकार मराठों का दिल्ली तथा उत्तरी भारत की राजनीति से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित हो गया। दूसरी ओर परवर्ती मुगल शासकों की दुर्बलता के कारण सत्ता के प्रश्न पर मुसलमानों के मध्य जो संघर्ष प्रारम्भ हुआ, उस संघर्ष में भी मराठों को हस्तक्षेप करना पड़ा। इस प्रकार उनके बढ़ते हुए राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण मुसलमानों के एक वर्ग को उनके प्रति ईर्ष्या उत्पन्न हुई और इस वर्ग ने मराठों के विरुद्ध अहमदशाह अब्दाली को आमन्त्रित किया था।

(2) मुगल बादशाह की दुर्बलता –

औरंगजेब की सन् 1707 में मृत्यु होने के पश्चात् मुगल राजवंश उत्तरोत्तर पतन की ओर बढ़ता गया। इसी मध्य सन् 1737 में नादिरशाह ने दिल्ली पर आक्रमण किया । इस घटना ने मुगलवंश के शासन की रीढ़ को तोड़ दिया। इसके फलस्वरूप बादशाह की स्थिति इतनी अधिक कमजोर हो गई थी कि कोई भी शक्तिशाली आक्रमणकारी आक्रमण करके मुगल साम्राज्य पर अधिकार कर सकता था । इस प्रकार सम्राट की दुर्बल स्थिति ने पानीपत के तृतीय युद्ध की भूमिका को तैयार किया था।

(3) मुगल साम्राज्य में अराजकता का वातावरण-

मुगल शासक ने अपनी दुर्बल स्थिति के कारण अपनी सुरक्षा के उद्देश्य से मराठों का संरक्षण स्वीकार कर लिया था किन्तु सीमित साधनों के कारण मराठे मुगल साम्राज्य में शान्ति व व्यवस्था कायम रखने में सम्राट को विशेष सहयोग न कर सके, जिसके फलस्वरूप पूरे साम्राज्य में विशेषतः दिल्ली और निकटवर्ती क्षेत्रों में अराजकता का वातावरण उत्पन्न हो गया। ऐसे वातावरण में बाहरी आक्रमणकारी का आक्रमण करने के लिए प्रेरित होना स्वाभाविक था ।

(4) अहमदशाह अब्दाली की महत्त्वाकांक्षा-

पानीपत के युद्ध से पूर्व अफगान शासक अहमदशाह अब्दाली भारत पर चार बार आक्रमण कर चुका था। वह महान योद्धा व विजेता होने के साथ-साथ एक महत्त्वाकांक्षी सम्राट था। भारत में मराठा शक्ति के उत्कर्ष को उसने अपने विरुद्ध एक सशक्त चुनौती के रूप में स्वीकार किया और उस शक्ति का दमन करने का निश्चय किया। अहमदशाह अब्दाली को यह बात कभी स्वीकार नहीं हो सकती थी कि दिल्ली, पंजाब, लाहौर आदि क्षेत्रों पर मराठा शक्ति का ध्वज फहराता रहे। वह मराठों के इस कार्य को अपने लिए चुनौती समझता था। अहमदशाह अब्दाली अपनी विजयों को सुरक्षित रखने के लिए तथा अपनी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अत्यन्त विशाल सेना रखता था जिसका खर्च वहन करना अत्यन्त दुष्कर कार्य था। इस व्यय की पूर्ति के लिए उसने पंजाब के उपजाऊ प्रदेश पर अधिकार करने तथा भारतीय सम्पदा को लूटकर धन एकत्र करने का निश्चय किया । इसी निश्चय की परिणति पानीपत के तृतीय युद्ध के रूप में हुई थी ।

(5) मराठों की त्रुटिपूर्ण विदेश नीति-मराठों की विदेश नीति मुख्य रूप से तीन सिद्धान्तों पर थी—

(अ) आर्थिक लाभ, (ब) मुगल साम्राज्य की सुरक्षा, तथा (स) मराठा शक्ति का प्रसार। इन तीनों सिद्धान्तों को क्रियान्वित करने के उद्देश्य से मराठों ने जिस प्रकार की राजनीति को अपनाया, उसके फलस्वरूप मुगल, राजपूत तथा अफगान सभी मराठों के शत्रु बन गए। मराठों ने दिल्ली दरबार की राजनीति के क्षेत्र में चल रही सामन्तों की प्रतिद्वन्द्विता में अनुचित हस्तक्षेप करके मुगलों को अपना शत्रु बना लिया। राजस्थान के राजपूत शासकों के साथ मराठों ने अमानवीय एवं अदूरदर्शितापूर्ण नीति को अपनाया । फलस्वरूप राजपूत, जाट सभी मराठों से रुष्ट हो गए। इसके अतिरिक्त उन्होंने पंजाब तथा काबुल तक के क्षेत्र पर अधिकार करने की योजना बनाई,उससे अहमदशाह अब्दाली की राजनीतिक व साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा को गहरा आघात पहुँचा। इन योजनाओं ने अब्दाली को मराठों का कट्टर शत्रु बना दिया। इस तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मराठों की त्रुटिपूर्ण विदेश नीति ने काफी सीमा तक पानीपत के तृतीय युद्ध की पृष्ठभूमि का निर्माण किया था ।

(6) अफगानों और पेशवाओं की परम्परागत शत्रुता-

अफगानों और पेशवाओं के मध्य परम्परागत शत्रुता थी। सन् 1752 में अहमदशाह अब्दाली ने भारत के रुहेला सरदारों के प्रोत्साहन पर भारत में प्रवेश किया और लाहौर तथा मुल्तान की सीमाओं को मिला लिया। पंजाब से आधिपत्य समाप्त होने पर मुगल बादशाह चिन्तित होने लगा और उसने मुंगल साम्राज्य की सुरक्षा के लिए मराठों के संरक्षण में रहना उचित समझा। पेशवा बालाजी बाजीराव ने मुगल बादशाह को संरक्षण प्रदान किया। इसके अतिरिक्त होल्कर व सिंधिया जैसे मराठा सरदारों को चौथ देना भी मुगल बादशाह ने स्वीकार कर लिया।

 

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