Contents
- 1 अर्थ परिवर्तन (arth parivartan ) के कारण
- 1.1 अर्थ परिवर्तन के प्रमुख कारण इस प्रकार है :
- 1.1.1 1. बल का अपसरण :
- 1.1.2 2. परिवेश – भिन्नता :
- 1.1.3 3. नम्रता- प्रदर्शन :
- 1.1.4 4. मूल सामग्री से निर्मित पदार्थ :
- 1.1.5 5. निर्माण क्रिया के आधार पर निर्मित वस्तु का नाम :
- 1.1.6 6. अन्य भाषाओं से गृहीत शब्द :
- 1.1.7 7. अशोभन के बहिष्कार की प्रवृत्ति :
- 1.1.8 8. अश्लील तथा घृणात्मक शब्दों के बहिष्कार की प्रवृत्ति :
- 1.1.9 9. अन्धविश्वास तथा छोटे कार्यों को महत्व देने की प्रवृत्ति :
- 1.1.10 10. संक्षेपण की प्रवृत्ति :
- 1.1 अर्थ परिवर्तन के प्रमुख कारण इस प्रकार है :
अर्थ परिवर्तन (arth parivartan ) के कारण
अर्थ का शब्दार्थ यद्यपि काल्पनिक एवं सांकेतिक है परन्तु अर्थबोध का साक्षात् सम्बन्ध मन से है। मानव मन गतिशील, चंचल, भावुक, संवेदनशील एवं नवीनता का प्रेमी है।
अतः विभिन्न परिस्थितियों में मानव-मन की स्थिति एक-सी नहीं होती है। यही कारण है कि राग-द्वेष, क्रोध, घृणा, आवेश आदि में उच्चरित शब्दों के अर्थों में अन्तर होता है। यह अर्थ-परिवर्तन प्रारम्भ में व्यक्तिगत होता है, परन्तु बाद में समाज के द्वारा स्वीकृत होने पर भाषा में ग्रहण कर लिया जाता है और भाषा का अंग बन जाता है। इस प्रकार अर्थ-परिवर्तन की समस्त प्रक्रिया मनोवैज्ञानिक है।
मन की स्थितियों का भौतिक विश्लेषण नहीं किया जा सकता है, अत: अर्थ-परिवर्तन के दूसरा कारण भी सम्बद्ध होता है, अत: दोनों कारणों में उस उदाहरण को प्रस्तुत किया जाता है।
भारतीय काव्यशास्त्रियों—आचार्य मम्मट, विश्वनाथ, पंडितराज जगन्नाथ आदि ने अर्थ-भेद या अर्थ-परिवर्तन के कारण रूप में लक्षणा, व्यंजना शक्तियों का सूक्ष्मतम विवेचन
किया है ।
पाश्चात्य विद्वानों में प्रो. टकर एवं मिशेल ब्रेआल ने भी इसका विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया है ।
अर्थ परिवर्तन के प्रमुख कारण इस प्रकार है :
1. बल का अपसरण :
जिस प्रकार किसी शब्द-विशेष का उच्चारण करते समय ध्वनि-विशेष पर बल देने से शेष ध्वनियां दुर्बल पड़कर धीरे-धीरे लुप्त हो जाती हैं उसी प्रकार शब्द के अर्थ के प्रधान पक्ष के स्थान पर किसी दूसरे पक्ष पर बल पड़ने से प्रधान अर्थ लुप्त हो जाता है तथा कोई अन्य अर्थ प्रधान हो जाता है। उदाहरणार्थ, ‘गोस्वामी’ शब्द का मूल अर्थ था—’ गायों का स्वामी’ जो सम्पन्नता का और गायों के प्रति श्रद्धाभाव के कारण धार्मिकता का द्योतक था। धीरे-धीरे मूल अर्थ लुप्त हो गया और उसका स्थान ‘सम्मानित’ अर्थ लेता गया ।
तुलसीदास के साथ जुड़ा ‘गोस्वामी’ शब्द धार्मिक दृष्टि से सम्मानित पुरुष अर्थवाची है, न कि ‘गायों का स्वामी’ मूल अथवा प्रधान अर्थवाची है ।
संस्कृत के जुगुप्सा शब्द का अर्थ- परिवर्तन भी बलापसरण का उदाहरण है। ‘गुप् क्षणे’ ना था। रक्षा अथवा बचाव के लिए वस्तु को छिपाना पड़ता है और जहाँ दुराव-छिपाव होता है, वहाँ कुछ खोट की आशंका से घृणा की गन्ध आने लगती है । रक्षा के भाव पर बल न रहने से धीरे-धीरे जुगुप्सा का अर्थ ही घृणा हो गया ।
2. परिवेश – भिन्नता :
एक स्थान पर उपलब्ध वस्तु के लिए प्रयुक्त शब्द दूसरे स्थान पर उपलब्ध मिलती-जुलती वस्तु के लिए प्रयुक्त होने लगता है तो अर्थ परिवर्तन स्वतः हो जाता है । वैदिक आर्य उष्ट्र का प्रयोग अंगली बैल के लिए करते थे परन्तु मरुभूमि में आने पर वे ऊँट के लिए भी इस शब्द का प्रयोग करने लगे तो इससे उष्ट्र का अर्थ ही बदल गया है । इसी प्रकार से ही ‘कार्न’ शब्द का अर्थ इंग्लैण्ड में गेहूँ, अमेरिका में मक्का और स्कॉटलैण्ड में बाजरा है ।
3. नम्रता- प्रदर्शन :
शालीनता अथवा शिष्टतावश लोग अपने को और अपने से सम्बन्धित वस्तुओं को छोटे रूप में और दूसरों के प्रति गौरव और सम्मान दिखाने के लिए उन्हें और उनसे सम्बन्धित वस्तुओं को बड़े रूप में वर्णन करते हैं । उदाहरणार्थ – अपना नाम पूछे जाने पर वक्ता—खादिम को अमुक कहते हैं अथवा गुलाम का नाम अमुक है, कहता है । इसी प्रकार अपने घर को गरीबखाना, झोंपड़ी बताता है। इसके विपरीत अपने से बड़े से पूछते हुए कहा जाता है—आपका शुभ नाम क्या है, आपका दौलतखाना कहाँ है, आप किस देश को सुशोभित करते हैं, आप किस देश को शोभाविहीन कर आए हैं। इसी प्रकार किसी के आने पर कहा जाता है— आपके चरण पड़ने से हमारा घर पवित्र हो गया, थोड़ा मुँह तो जूठा कर लीजिए। कार्यालयों में प्रायः चपरासी बाबू से आकर कहता है – ” आपको बड़े साहब याद फरमा रहे हैं”—“बड़े साहब ने सलाम भेजा है।” इन वाक्यों का अभिप्राय बुलाना होता है । इस प्रकार के औपचारिक कथनों में शब्दों का अर्थ परिवर्तित हो जाता है।
4. मूल सामग्री से निर्मित पदार्थ :
किसी आधारभूत सामग्री से निर्मित पदार्थों के नाम भी जब सामग्री के नाम से अभिहित होने लगते हैं तो उनके अर्थ में परिवर्तन हो जाता है । उदाहरणार्थ- ग्लास (शीशा) से बनने वाले पात्र – विशेष को भी जब ग्लास (गिलास) कहा जाने लगा तो ग्लास का अर्थ शीशा से पात्र विशेष हो गया। कालान्तर में वे पात्र-विशेष अन्यान्य धातुओं – पीतल, चांदी तथा स्टील आदि से बने होने पर भी उसी नाम से प्रसिद्ध रहे। इसी प्रकार शीशे से बने दर्पण का अर्थ भी शीशा हो गया। अंग्रेजी में इसके लिए ‘मिरर’ तथा ‘लुकिंग ग्लास’ शब्द हैं परन्तु हिन्दी में दर्पण और शीशा पर्यायवाची से बन गये हैं।
5. निर्माण क्रिया के आधार पर निर्मित वस्तु का नाम :
प्राचीनकाल में भोज आदि के वृक्षों के पत्तों पर लिखा जाता था और उन पत्तों को परस्पर गांठा (प्रथित) जाता था, इस क्रिया के आधार पर ग्रथित पत्र-समूह को ‘ग्रन्थ’ कहा जाने लगा। इस प्रकार ग्रन्थ का अर्थ गांठना अथवा गंठर के स्थान पर महत्वपूर्ण पुस्तक हो गया ।
6. अन्य भाषाओं से गृहीत शब्द :
एक भाषा के शब्द जब दूसरी भाषा में प्रयुक्त होते हैं तो उनके अर्थ में परिवर्तन हो जाता है । उदाहरणार्थ, अंग्रेजी के कार्न शब्द का अर्थ हिन्दी में बदल गया है। तमिल के पिल्लै शब्द का हिन्दी में अर्थ परिवर्तित हो गया है।
7. अशोभन के बहिष्कार की प्रवृत्ति :
अशुभ कार्यों अथवा घटनाओं के वर्णन से बचने के लिए उसके स्थान पर शुभ शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जिससे उन शब्दों का अर्थ बदल है।
उदाहरणार्थ – खुशामदी व्यक्ति किसी रोगी से मिलने पर कहता है-सुना है कि आपके दुश्मनों की तबीयत खराब है, पूछने चला आया । इसी प्रकार किसी के मरने की सूचना – पूरा हो जाना, स्वर्ग सिधारना, मुक्त हो जाना, संसार त्यागना आदि के रूप में ही दी जाती है। इसी प्रकार किसी स्त्री के विधवा होने पर चूड़ी फूटना, सिन्दूर, धुलना, सुहाग लुटना आदि कहा जाता है । दुकानदार दुकान बन्द करने को दुकान बढ़ाना तथा गृहिणी दिया बुझाने दिया बढ़ाना कहती है। सांप-बिच्छू को कीड़ा कहना और चेचक आने को मातारानी द्वारा कृपा करना कहना अशोभन से बचने की प्रवृत्ति के ही उदाहरण हैं। स्पष्ट है कि सामान्य व्यवहार में अशोभन तथ्यों के लिए शोभन भाषा का प्रयोग किया जाता है, जो अपने मूल अर्थ से भिन्न अर्थ का द्योतन कराती है ।
8. अश्लील तथा घृणात्मक शब्दों के बहिष्कार की प्रवृत्ति :
शिष्टता और शालीनता के अनुरोध से ही लोग अश्लील शब्दों तथा जुगुप्सामूलक शब्दों का प्रयोग न करके अन्यान्य शब्दों से अपना मन्तव्य प्रकट करते हैं। किसी पुरुष द्वारा किसी स्त्री से उसकी इच्छा के विरुद्ध सम्भोग को ‘बलात्कार’ शब्द से सूचित किया जाता है। लिंग को इन्द्रिय, पेशाब को बाथरुम, पाखाना को शौच जाना, चोर को तस्कर तथा गर्भिणी को पांव भारी होना आदि कहना इसी प्रवृत्ति के परिचायक शब्द हैं ।
9. अन्धविश्वास तथा छोटे कार्यों को महत्व देने की प्रवृत्ति :
कभी-कभी अन्धविश्वास के कारण लोग कुछ शब्दों का प्रयोग नहीं करते। पति-पत्नी एक-दूसरे को नाम से न पुकार कर ‘ ‘घरवाली’ तथा ‘घरवाला’ शब्दों से सम्बोधित करते हैं। इससे इन शब्दों का अर्थ सामान्य से विशिष्ट हो गया है। छोटे कार्यों को महत्व देने के कारण नाई को ‘राजा’, ‘रसोइये’ को ‘महाराज’ तथा पाखाना साफ करने वाले को मेहतर (महतर) नाम दिया जाता है। इससे इन शब्दों के अर्थ परिवर्तित हो गए हैं ।
10. संक्षेपण की प्रवृत्ति :
मनुष्य में स्वल्प परिश्रम से अधिकाधिक कार्य निकालने की सामान्य प्रवृत्ति है । भाषा में समास और संक्षेपण का जन्म और विकास मनुष्य की इस सहज एवं प्रबल प्रवृत्ति के ही परिणाम हैं। शब्दों के अर्थ के क्षेत्र में भी मनुष्य की यह प्रवृत्ति कार्यरत दृष्टिगोचर होती है । उदाहरणार्थ ‘रेलवे ट्रेन’, ‘रेलवे स्टेशन’ के स्थान पर केवल ट्रेन और स्टेशन
शब्दों का प्रयोग होने लगा। तार द्वारा भेजे जाने तथा पाये जाने वाले सन्देश के लिए भी ‘तार’ शब्द प्रचलित होने लगा है। ‘मोटर कार’ के स्थान पर केवल ‘कार’ शब्द का तथा ‘हस्तिनमृग’ के स्थान पर केवल हस्तिन (हस्ती, हाथी) का, पोस्टल स्टेम्प के स्थान पर केवल स्टाम्प का तथा कटाई के स्थान पर टाई शब्द का प्रयोग होने लगा है। यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो इन शब्दों का मूलतः वह अर्थ नहीं, जो आज लिया जाता है परन्तु मनुष्य के संक्षेपण की प्रवृत्ति ने जन-मानस में इन शब्दों का उक्त अर्थ रूढ़ कर दिया है ।
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