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Hindi Natak – हिंदी नाटक का उद्भव और विकास
Hindi Natak – हिंदी नाटक का उद्भव और विकास : हिन्दी साहित्य के आरम्भिक नाटककारों को संस्कृत-साहित्य से प्रेरणा मिली। आरम्भ में हिन्दी में संस्कृत के नाटकों के अनुवाद किये गये। महाराजा जसवंतसिंह ने संस्कृत के प्रबोध चन्द्रोदय का हिन्दी में ‘प्रबोध चन्द्रोदय’ नाम से नाटक अनूदित किया। यह ब्रजभाषा में गद्य-पद्य में लिखा गया था। संस्कृत के नाटकों की धारा निर्जीव होती जा रही थी, तब हिन्दी में उनके अनुवाद नाटक के रूप में तैयार किये गये थे। संस्कृत नाटकों से हिन्दी नाटकों को विशेष लाभ नहीं हो पाया। नाटक मनोरंजन की विधा है। इस कारण उसने जन नाटकों या लोक नाटकों से भी प्रेरणा पायी। उनसे हिन्दी नाटकों ने बहुत-कुछ लिया । बंगला में कीर्तनिया नाटक, अवधी, पूर्वी हिन्दी, खड़ी बोली में रास, नौटंकी, स्वांग, भांड, राजस्थानी में रास, झूमर, ढोला मारू, गुजराती में गवई, तमिल में भगवत मेल आदि जननाटक हैं। हिन्दी के नाटकों के उद्भव और विकास में इनका भी प्रभाव रहा है।
हिन्दी नाटकों का विकास – hindi natak ka vikas
समालोचकों ने हिन्दी नाटकों का विकास को लक्ष्य कर काल-क्रम का विभाजन किया है। तदनुसार विवेचन इस प्रकार से किया जाता है-
पूर्व भारतेन्दु युग-
डॉ. दशरथ ओझा ने हिन्दी नाटकों की परम्परा 13वीं शताब्दी से बताई है। डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत की मान्यता है कि हिन्दी नाटकों ने मैथिली नाटकों से प्रेरणा अवश्य ली है । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से पहले रामायण, महानाटक, हनुमन्नाटक, देवमाया प्रपंच, चण्डीचरित, सुदामाचरित आदि नाटक थे। कुछ अनूदित नाटक भी विद्यमान थे। कविवर नेवाज ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक का अनुवाद तैयार किया। कर्णाभरण भी भारतेन्द्र से पहले का है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से पहले का सर्वप्रथम मौलिक नाटक ‘आनन्द – रघुनन्दन’ है। भारतेन्दुजी के पिताजी ने ‘नहुष’ नाटक लिखा। राजा लक्ष्मणसिंह ने ‘शकुन्तला’ नाटक संस्कृत-गर्भित खड़ी बोली में लिखा । भारतेन्दु के समय तक अंग्रेजी से बंगला में अनूदित नाटक लिखे जा रहे थे। ‘विद्या सुन्दर’ नामक बंगाली नाटक का अनुवाद किया गया था। देव कवि ने ‘देवमाया प्रपंच’ और रींवा नरेश विश्वनाथ सिंह ने ‘आनन्द रघुनंदन’ नाटक लिखे । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘आनन्द रघुनन्दन’ को हिन्दी का प्रथम नाटक माना है। गणेश कवि ने ‘प्रद्युम्न विजय’ नाटक लिखा। यह काव्य के रूप में है। कृष्णचरित्रोपाख्यान खड़ी बोली का सबसे पुराना नाटक है। कालिदास, भवभूति, भास और श्रीहर्ष जैसे नाटककारों के बाद लगभग हजार वर्ष तक नाटक का क्षेत्र शून्य रहा।
भारतेन्दु युग –
हिन्दी की अन्य विधाओं की तरह नाटकों का आरम्भ भी भारतेन्दु युग से माना जाता है। भारतेन्दु बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार थे । अन्य विधाओं के साथ- साथ उन्होंने नाटक भी लिखे। उन्होंने ‘सत्य हरिश्चन्द्र’, ‘अन्धेरी नगरी’, ‘विषस्य विषमौषधम्’, ‘चन्द्रावली’, ‘दुर्लभ बन्धु’, ‘नीलदेवी’, ‘जैसा काम वैसा परिणाम’, ‘वैदिकी हिंसा-हिंसा न भवति’, ‘भारत दुर्दशा’ आदि करीब बीस नाटक लिखे । भारतेन्दु नाटकावली में उनके सत्रह नाटकों को ही स्थान मिला है, अन्य अप्रामाणिक या संदिग्ध माने गये हैं । भारतेन्दुजी को विरासत में पांच नाट्य शैलियाँ मिली थीं। ये पाँच थीं रासलीला की, रामलीला की, यात्रा, नाटक, स्वांग और आनन्द – रघुनन्दन नाटक की । भारतेन्दु का उदय प्राचीन और नवीन की संधिवेला में हुआ। उन्होंने दोनों का समन्वय उपस्थित किया। उनके नाटकों में समाज का चित्र देखने को मिलता है। उन्होंने नाटकों के माध्यम से अपने देशप्रेम भारतेन्दु के समकालीन और भी नाटककार हुए हैं। देवकीनन्दन, बलदेव, बन्दोदीन, ज्वालाप्रसाद मिश्र, वामनाचार्य गिरि, अम्बिकादत्त व्यास, श्रीनिवासदास,
बदरीनारायण चौधरी प्रेमधन, पं. प्रतापनारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी आदि ने नाटक लिखे। इनमें से किसी के नाटक भारतेन्दु के नाटकों की बराबरी के नहीं हो सके। इन लेखकों ने सीता हरण, रामलीला, सीता वनवास, संयोगिता स्वयंवर, प्रह्लाद चरित्र, भरत सौभाग्य, कवि प्रभाव, जुआरी ख्वारी, रेल का विकट खेल, चंद्रसेना, बालविवाह, महारानी पद्मावती, महाराणा प्रताप, माधवानल कामकन्दला, गौ संकट आदि नाटक लिखे ।
द्विवेदी युग –
द्विवेदी युग में मौलिक एवं अनूदित — दोनों प्रकार के नाटक लिखे गये। मौलिक नाटककारों में माखनलाल चतुर्वेदी, देवीप्रसाद, बद्रीनाथ भट्ट का नाम उल्लेखनीय है। अनूदित नाटक तैयार करने वालों में सीताराम बी. ए., गोपालराम, गोपालकृष्ण वर्मा, रूपनारायण पाण्डेय का नाम लिया जाता है। भारतेन्दु युग के द्वारा प्रवर्तित नाटक-रचना की परम्परा द्विवेदी युग में समाप्त-सी हो गयी थी। इस युग में विशेष ध्यान भाषा एवं साहित्य में सुधार करने की ओर दिया गया।
प्रसाद युग –
हिन्दी नाटक के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद जैसा व्यक्तित्व कभी नहीं हुआ। प्रसादजी ने चौदह नाटक लिखे हैं। ये नाटक ऐतिहासिक, पौराणिक एवं भावात्मक हैं। उनके ऐतिहासिक नाटक बहुत उच्चकोटि के हैं। ‘सज्जन’ उनका प्रथम नाटक है।‘अग्निमित्र’ उनका अपूर्ण नाटक है | राज्यश्री, अजातशत्रु, जनमेजय का नागयज्ञ, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, कल्याणी- परिणय, प्रायश्चित, विशाख, कामना आदि प्रसिद्ध नाटक हैं। प्रसादजी ने महाभारत काल से लेकर हर्षवर्द्धन तक के भारतीय इतिहास की घटनाओं को ऐतिहासिक नाटकों का आधार बनाया है। देश के गौरवपूर्ण अतीत से अवगत कराना उनका उद्देश्य रहा है। विशाख की भूमिका में उन्होंने लिखा भी है- “मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश में से उन प्रकाण्ड घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने का बहुत प्रयत्न किया।” उन्होंने इतिहास के वे उज्ज्वल चित्र लिये हैं जिन पर हमें गर्व है । उनके नाटकों में पौर्वात्य एवं पाश्चात्य नाटकों की कला का समन्वय हुआ है। उन्होंने पात्रों के आंतरिक एवं बाह्य द्वन्द्व का बड़ा अच्छा चित्रण किया है।
प्रसादोत्तर युग-
भारतेन्दु के बाद द्विवेदी युग में नाटक लिखने की परम्परा बहुत मंद पड़ गई थी, परन्तु प्रसाद युग के बाद तो नाटक लिखे जाते रहे। प्रसादजी के बाद प्रसिद्ध नाटककारों में लक्ष्मीनारायण मिश्र का नाम उल्लेखनीय है। मिश्रजी ने नाटकों के विषय में परिवर्तन किया। उन्होंने अंग्रेजी के लेखक इब्सन, शॉ आदि से प्रभाव ग्रहण किया है और नाटकों में यथार्थवाद को भी स्थान दिया है। उनके बारे में कुछ आलोचकों की मान्यता है कि उनके नाटकों के कथानक बनावटी, स्थितियाँ आरोपित, काल्पनिक एवं अविश्वसनीय हैं। उनके चरित्र भी अन्तहीन बहस में लगे रहने वाले हैं। मिश्रजी ने अपने नाटकों में अपने रंगमंच का ध्यान नहीं रखा है। एक-एक अंक में कई-कई दृश्यों की योजना की है। भाषा भी नाटकोपयोगी न होकर बोझिल है। उन्होंने सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक नाटक लिखे हैं। मिश्रजी के नाटकों में ‘चक्रव्यूह’, ‘वत्सराज’, ‘अशोक’, ‘गरुड़ध्वज’, ‘भारतेन्दु’, ‘बितस्ता की लहरें’, ‘दशाश्वमेध’, ‘नारद की वाणी’ आदि प्रसिद्ध हैं।
स्वातन्त्र्योत्तर युग-
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हमारे देशवासियों पर पाश्चात्य दृष्टिकोण का काफी असर हुआ । नाट्य साहित्यकारों ने भी पाश्चात्य विचारों से प्रभाव ग्रहण किया। हिन्दी रंगमंच के प्रति आदर का भाव बढ़ा है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद श्री जगदीश चन्द्र माथुर का ‘कोणार्क’ नाटक सामने आया। उन्होंने नाटक की रचना यथार्थवादी रंगमंच को ध्यान में रखकर की है। बीते हुए युग के संदर्भ में समकालीन भाव स्थिति का अन्वेषण इस नाटक में हुआ है। उनकी ‘शारदीया’ प्रौढ़ नाट्य-कृति है । ‘पहला राजा’ उनका पौराणिक कथा पर आधारित नाटक है। पौराणिक घटनाओं को आधुनिक युग के राजनीतिक एवं सामाजिक परिवेश में प्रस्तुत किया गया है। डॉ. धर्मवीर भारती ने पौराणिक कथन के आधार पर काव्य नाटक लिखा है जो नवीन ढंग का है। इसे सफलतापूर्वक खेला गया है। डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल ने ‘अंधा कुआँ’, ‘मादा कैक्टस’, ‘तोता मैना’ आदि नाटक लिखे हैं । उनका सबसे प्रसिद्ध नाटक ‘दर्पण’ है। डॉ. लाल ने नाटकों में शिल्पगत प्रयोग किये हैं ।
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